कबीर के दोहे – 1
This is the first post on Sant Kabir’s verses – called Dohe. I will bring more of these everyday.
बिरछा कबहूँ न फल भखै, नदी न अन्चवे नीर
परमार्थ के कारने, साधू धरा शरीर|
वृक्ष कभी भी अपना फल खुद नहीं खाता, न ही नदी कभी अपना जल पीती है| उसी प्रकार साधू संतों का जीवन दूसरों के परमार्थ और परोपकार के लिए ही होता है|
आँखों देखा घी भला, ना मुख मेला तेल ,
साधू सों झगडा भला, न साकट सों मेल
आँखों से देखा हुआ घी का दर्शन मात्र भी अच्छा होता है| परन्तु, मुख में डाला हुआ तेल भी अच्छा नहीं होता| ठीक वैसे ही, साधू जन से झगडा भी कर लेना अच्छा है| किन्तु, बुद्धि-हीन मनुष्यों से मिलना भी अनुचित होता है|
आब गया, आदर गया, नैनं गया स्नेह,
यह तीनों तब ही गए, जबहीं कहा कछु देह|
समाज में प्रतिष्ठा जाते ही, सबकी दृष्टि से आपके लिए आदर चला जाता है और उनके नैनों में (और ह्रदय में) प्रेम एवं स्नेह| पर यह तीनों – प्रथिष्ठ्ता, आदर और स्नेह – तब जातें हैं, जब आप किसी पर बोझ बन जाते हो|